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देव॑ सवितः॒ प्रसु॑व य॒ज्ञं प्रसु॑व य॒ज्ञप॑तिं॒ भगा॑य। दि॒व्यो ग॑न्ध॒र्वः के॑त॒पूः केत॑न्नः पुनातु वा॒चस्पति॒र्वाचं॑ नः स्वदतु ॥७ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

देव॑। स॒वि॒त॒रिति॑ सवितः। प्र। सु॒व॒। य॒ज्ञम्। प्र। सु॒व॒। य॒ज्ञप॑ति॒मिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिम्। भगा॑य। दि॒व्यः। ग॒न्ध॒र्वः। के॒त॒पूरिति॑ केत॒ऽपूः। केत॑म्। नः॒। पु॒ना॒तु॒। वा॒चः। पतिः॑। वाच॑म्। नः॒। स्व॒द॒तु॒ ॥७ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:11» मन्त्र:7


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब किसलिये परमेश्वर की उपासना और प्रार्थना करनी चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (देव) सत्य योगविद्या से उपासना के योग्य शुद्ध ज्ञान देने (सवितः) और सब सिद्धियों को उत्पन्न करने हारे परमेश्वर ! आप (नः) हमारे (भगाय) सम्पूर्ण ऐश्वर्य के लिये (यज्ञम्) सुखों को प्राप्त कराने हारे व्यवहार को (प्रसुव) उत्पन्न कीजिये तथा (यज्ञपतिम्) इस सुखदायक व्यवहार के रक्षक जन को (प्रसुव) उत्पन्न कीजिये (गन्धर्वः) पृथिवी को धरने (दिव्यः) शुद्ध गुण, कर्म और स्वभावों में उत्तम और (केतपूः) विज्ञान से पवित्र करने हारे आप (नः) हमारे (केतम्) विज्ञान को (पुनातु) पवित्र कीजिये और (वाचस्पतिः) सत्य विद्याओं से युक्त वेदवाणी के प्रचार से रक्षा करनेवाले आप (नः) हमारी (वाचम्) वाणी को (स्वदतु) स्वादिष्ठ अर्थात् कोमल मधुर कीजिये ॥७ ॥
भावार्थभाषाः - जो पुरुष सम्पूर्ण ऐश्वर्य से युक्त शुद्ध, निर्मल ब्रह्म की उपासना और योगविद्या की प्राप्ति के लिये प्रार्थना करते हैं, वे सब ऐश्वर्य्य को प्राप्त अपने आत्मा को शुद्ध और योगविद्या को सिद्ध कर सकते हैं। जो ईश्वर की वाणी के तुल्य अपनी वाणी को शुद्ध करते हैं, वे सत्यवादी हो के सब क्रियाओं के फलों को प्राप्त होते हैं ॥७ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ किमर्थं परमेश्वर उपास्यः प्रार्थनीयश्चास्तीत्याह ॥

अन्वय:

(देव) दिव्यविज्ञानप्रद (सवितः) सर्वसिद्ध्युत्पादक (प्र) (सुव) उत्पादय (यज्ञम्) सुखानां सङ्गमकं व्यवहारम् (प्र) (सुव) (यज्ञपतिम्) एतस्य यज्ञस्य पालकम् (भगाय) अखिलैश्वर्य्याय (दिव्यः) दिवि शुद्धगुणकर्मसु साधुः (गन्धर्वः) यो गां पृथिवीं धरति सः (केतपूः) यः केतेन विज्ञानेन पुनाति (केतम्) विज्ञानम् (नः) अस्माकम् (पुनातु) पवित्रीकरोतु (वाचः) सत्यविद्यान्विताया वेदवाण्याः (पतिः) प्रचारेण रक्षकः (वाचम्) वाणीम् (नः) अस्माकम् (स्वदतु) स्वदतां स्वादिष्ठां करोतु, अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम्। [अयं मन्त्रः शत०६.३.१.१९ व्याख्यातः] ॥७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे देव सत्ययोगविद्ययोपासनीय सवितर्भगवन् ! त्वं नो भगाय यज्ञं प्रसुव, यज्ञपतिं प्रसुव। गन्धर्वो दिव्यः केतपूर्भवान्नोऽस्माकं केतं पुनातु, वाचस्पतिर्भवान्नो वाचं स्वदतु ॥७ ॥
भावार्थभाषाः - ये सकलैश्वर्य्योपपन्नं शुद्धं ब्रह्मोपासते योगप्राप्तये प्रार्थयन्ते, तेऽखिलैश्वर्य्यं शुद्धात्मानं कर्त्तुं योगं च प्राप्तुं शक्नुवन्ति। ये जगदीश्वरवाग्वत् स्ववाचं शुन्धन्ति, ते सत्यवाचः सन्तः सर्वक्रियाफलान्याप्नुवन्ति ॥७ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे संपूर्ण ऐश्वर्ययुक्त शुद्ध व निर्मळ ब्रह्माची उपासना व योगविद्येच्या प्राप्तीसाठी प्रार्थना करतात त्यांना सर्व ऐश्वर्य प्राप्त होते. ते आपल्या आत्म्याला शुद्ध बनवू शकतात व योगसिद्धी प्राप्त करू शकतात. जे परमेश्वराच्या वेदवाणीप्रमाणे आपल्या वाणीची शुद्धी करतात ते सत्यवादी बनतात व त्यांना सर्व कर्माचे (उत्तम) फळ प्राप्त होते.